| शिव विवाह |
| सती के विरह में |
| शंकरजी की दयनीय |
| दशा हो गई। वे हर पल |
| सती का ही ध्यान करते |
| रहते और उन्हीं की चर्चा में |
| व्यस्त रहते। उधर सती ने |
| भी शरीर का त्याग करते |
| समय संकल्प किया था कि मैं |
| राजा हिमालय के |
| यहाँ जन्म लेकर |
| शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ। |
| अब जगदम्बा का संकल्प |
| व्यर्थ होने से तो रहा। वे |
| उचित समय पर |
| राजा हिमालय |
| की पत्नी मेनका के गर्भ में |
| प्रविष्ट होकर उनकी कोख |
| में से प्रकट हुईं। पर्वतराज |
| की पुत्री होने के कारण वे |
| 'पार्वती' कहलाईं। जब |
| पार्वती बड़ी होकर |
| सयानी हुईं तो उनके माता- |
| पिता को अच्छा वर तलाश |
| करने की चिंता सताने लगी। |
| एक दिन अचानक |
| देवर्षि नारद |
| राजा हिमालय के महल में आ |
| पहुँचे और पार्वती को देख |
| कहने लगे कि इसका विवाह |
| शंकरजी के साथ |
| होना चाहिए और वे |
| ही सभी दृष्टि से इसके |
| योग्य हैं। |
| पार्वती के माता-पिता के |
| आनंद का यह जानकर |
| ठिकाना न |
| रहा कि साक्षात |
| जगन्माता सती ही उनके |
| यहाँ प्रकट हुई हैं। वे मन |
| ही मन भाग्य को सराहने |
| लगे। |
| एक दिन अचानक भगवान |
| शंकर सती के विरह में घूमते- |
| घूमते उसी प्रदेश में जा पहुँचे |
| और पास ही के स्थान |
| गंगावतरण में तपस्या करने |
| लगे। जब हिमालय |
| को इसकी जानकारी मिली तो वे |
| पार्वती को लेकर |
| शिवजी के पास गए। |
| वहाँ राजा ने शिवजी से |
| विनम्रतापूर्वक |
| अपनी पुत्री को सेवा में |
| ग्रहण करने |
| की प्रार्थना की। |
| शिवजी ने पहले |
| तो आनाकानी की, किंतु |
| पार्वती की भक्ति देखकर |
| वे उनका आग्रह न टाल न |
| सके। |
| शिवजी से अनुमति मिलने के |
| बाद |
| तो पार्वती प्रतिदिन |
| अपनी सखियों को साथ ले |
| उनकी सेवा करने लगीं। |
| पार्वती हमेशा इस बात |
| का सदा ध्यान |
| रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार |
| का कष्ट न हो। |
| वे हमेशा उनके चरण धोकर |
| चरणोदक ग्रहण करतीं और |
| षोडशोपचार से |
| पूजा करतीं। इसी तरह |
| पार्वती को भगवान शंकर |
| की सेवा करते दीर्घ समय |
| व्यतीत हो गया। किंतु |
| पार्वती जैसी सुंदर |
| बाला से इस प्रकार एकांत |
| में सेवा लेते रहने पर |
| भी शंकर के मन में |
| कभी विकार नहीं हुआ। |
| वे सदा अपनी समाधि में |
| ही निश्चल रहते। उधर |
| देवताओं को तारक नाम |
| का असुर बड़ा त्रास देने |
| लगा। यह जानकर कि शिव |
| के पुत्र से ही तारक |
| की मृत्यु हो सकती है, |
| सभी देवता शिव- |
| पार्वती का विवाह कराने |
| की चेष्टा करने लगे। |
| उन्होंने शिव |
| को पार्वती के |
| प्रति अनुरक्त करने के लिए |
| कामदेव को उनके पास भेजा, |
| किंतु पुष्पायुध का पुष्पबाण |
| भी शंकर के मन को विक्षुब्ध |
| न कर सका। उलटा कामदेव |
| उनकी क्रोधाग्नि से भस्म |
| हो गए। |
| इसके बाद शंकर |
| भी वहाँ अधिक |
| रहना अपनी तपश्चर्या के |
| लिए अंतरायरूप समझ कैलास |
| की ओर चल दिए। |
| पार्वती को शंकर |
| की सेवा से वंचित होने |
| का बड़ा दुःख हुआ, किंतु |
| उन्होंने निराश न होकर |
| अब की बार तप |
| द्वारा शंकर को संतुष्ट |
| करने की मन में ठानी। |
| उनकी माता ने उन्हें |
| सुकुमार एवं तप के अयोग्य |
| समझकर बहुत मना किया, |
| इसीलिए उनका 'उमा'- उ |
| +मा (तप न करो)- नाम |
| प्रसिद्ध हुआ। किंतु |
| पार्वती पर इसका असर न |
| हुआ। अपने संकल्प से वे तनिक |
| भी विचलित नहीं हुईं। वे |
| भी घर से निकल उसी शिखर |
| पर तपस्या करने लगीं, |
| जहाँ शिवजी ने |
| तपस्या की थी। |
| तभी से लोग उस शिखर |
| को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। |
| वहाँ उन्होंने पहले वर्ष |
| फलाहार से जीवन व्यतीत |
| किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण |
| (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने |
| लगीं और फिर तो उन्होंने |
| पर्ण का भी त्याग कर |
| दिया और इसीलिए वे |
| 'अपर्णा' कहलाईं। |
| इस प्रकार पार्वती ने |
| तीन हजार वर्ष तक |
| तपस्या की। उनकी कठोर |
| तपस्या को देख ऋषि- |
| मुनि भी दंग रह गए। |
| अंत में भगवान आशुतोष |
| का आसन हिला। उन्होंने |
| पार्वती की परीक्षा के |
| लिए पहले |
| सप्तर्षियों को भेजा और |
| पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर |
| पार्वती की परीक्षा के |
| निमित्त प्रस्थान किया। |
| जब इन्होंने सब प्रकार से |
| जाँच-परखकर देख |
| लिया कि पार्वती की उनमें |
| अविचल निष्ठा है, तब |
| तो वे अपने को अधिक देर |
| तक न छिपा सके। वे तुरंत |
| अपने असली रूप में |
| पार्वती के सामने प्रकट |
| हो गए और उन्हें |
| पाणिग्रहण का वरदान |
| देकर अंतर्धान हो गए। |
| पार्वती अपने तप को पूर्ण |
| होते देख घर लौट आईं और |
| अपने माता-पिता से |
| सारा वृत्तांत कह सुनाया। |
| अपनी दुलारी पुत्री की कठोर |
| तपस्या को फलीभूत |
| होता देखकर माता- |
| पिता के आनंद |
| का ठिकाना नहीं रहा। |
| उधर शंकरजी ने |
| सप्तर्षियों को विवाह |
| का प्रस्ताव लेकर हिमालय |
| के पास भेजा और इस प्रकार |
| विवाह की शुभ |
| तिथि निश्चित हुई। |
| सप्तर्षियों द्वारा विवाह |
| की तिथि निश्चित कर |
| दिए जाने के बाद भगवान् |
| शंकरजी ने |
| नारदजी द्वारा सारे |
| देवताओं को विवाह में |
| सम्मिलित होने के लिए |
| आदरपूर्वक निमंत्रित |
| किया और अपने |
| गणों को बारात |
| की तैयारी करने का आदेश |
| दिया। |
| उनके इस आदेश से अत्यंत |
| प्रसन्न होकर गणेश्वर |
| शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, |
| विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, |
| कपाल, कुंडक, काकपादोदर, |
| मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र |
| आदि गणों के अध्यक्ष अपने- |
| अपने गणों को साथ लेकर चल |
| पड़े। |
| नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव |
| आदि गणराज भी कोटि- |
| कोटि गणों के साथ निकल |
| पड़े। ये सभी तीन |
| नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक |
| पर चंद्रमा और गले में नीले |
| चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष |
| के आभूषण पहन रखे थे। सभी के |
| शरीर पर उत्तम भस्म |
| पुती हुई थी। |
| इन गणों के साथ शंकरजी के |
| भूतों, प्रेतों, |
| पिशाचों की सेना भी आकर |
| सम्मिलित हो गई। इनमें |
| डाकनी, शाकिनी, |
| यातुधान, वेताल, |
| ब्रह्मराक्षस |
| आदि भी शामिल थे। इन |
| सभी के रूप-रंग, आकार- |
| प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, |
| हाव-भाव आदि सभी कुछ |
| अत्यंत विचित्र थे। |
| किसी के मुख |
| ही नहीं था और किसी के |
| बहुत से मुख थे। कोई |
| बिना हाथ-पैर के |
| ही था तो कोई बहुत से |
| हाथ-पैरों वाला था। |
| किसी के बहुत सी आँखें |
| थीं और किसी के पास एक |
| भी आँख नहीं थी। |
| किसी का मुख गधे की तरह, |
| किसी का सियार की तरह, |
| किसी का कुत्ते की तरह |
| था। |
| उन सबने अपने अंगों में |
| ताजा खून लगा रखा था। |
| कोई अत्यंत पवित्र और |
| कोई अत्यंत वीभत्स |
| तथा अपवित्र गणवेश धारण |
| किए हुए था। उनके आभूषण |
| बड़े ही डरावने थे उन्होंने |
| हाथ में नर-कपाल ले |
| रखा था। |
| वे सबके सब अपनी तरंग में |
| मस्त होकर नाचते-गाते और |
| मौज उड़ाते हुए महादेव |
| शंकरजी के चारों ओर |
| एकत्रित हो गए। |
| चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के |
| साथ उत्सव मनाती हुई |
| भगवान् रुद्रदेव की बहन |
| बनकर वहाँ आ पहुँचीं। |
| उन्होंने सर्पों के आभूषण |
| पहन रखे थे। वे प्रेत पर |
| बैठकर अपने मस्तक पर सोने |
| का कलश धारण किए हुए |
| थीं। |
| धीरे-धीरे वहाँ सारे |
| देवता भी एकत्र हो गए। |
| उस देवमंडली के बीच में |
| भगवान श्री विष्णु गरुड़ |
| पर विराजमान थे। |
| पितामह |
| ब्रह्माजी भी उनके पास में |
| मूर्तिमान् वेदों, शास्त्रों, |
| पुराणों, आगमों, सनकाद |
| महासिद्धों, प्रजापतियों, |
| पुत्रों तथा कई परिजनों के |
| साथ उपस्थित थे। |
| देवराज इंद्र भी कई आभूषण |
| पहन अपने ऐरावत गज पर |
| बैठ वहाँ पहुँचे थे। |
| सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ |
| गए थे। तुम्बुरु, नारद, |
| हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ |
| गंधर्व तथा किन्नर |
| भी शिवजी की बारात |
| की शोभा बढ़ाने के लिए |
| वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ |
| ही सभी जगन्माताएँ, |
| देवकन्याएँ, |
| देवियाँ तथा पवित्र |
| देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई |
| थीं। |
| इन सभी के वहाँ मिलने के |
| बाद भगवान शंकरजी अपने |
| स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर |
| वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के |
| वेश में |
| शिवजी की शोभा निराली ही छटक |
| रही थी। |
| इस दिव्य और विचित्र |
| बारात के प्रस्थान के समय |
| डमरुओं की डम-डम, शंखों के |
| गंभीर नाद, ऋषियों- |
| महर्षियो ं के मंत्रोच्चार, |
| यक्षों, किन्नरों, |
| गन्धर्वों के सरस गायन और |
| देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य |
| और मंगल गीतों की गूँज से |
| तीनों लोक परिव्याप्त |
| हो उठे। |
| उधर हिमालय ने विवाह के |
| लिए बड़ी धूम-धाम से |
| तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न |
| में शिवजी की बारात |
| हिमालय के द्वार पर आ |
| लगी। पहले |
| तो शिवजी का विकट रूप |
| तथा उनकी भूत- |
| प्रेतों की सेना को देखकर |
| मैना बहुत डर गईं और उन्हें |
| अपनी कन्या का पाणिग्रहण |
| कराने में आनाकानी करने |
| लगीं। |
| पीछे से जब उन्होंने |
| शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने |
| वाला सोलह वर्ष |
| की अवस्था का परम |
| लावण्यमय रूप देखा तो वे |
| देह-गेह की सुधि भूल गईं और |
| शंकर पर अपनी कन्या के |
| साथ ही साथ |
| अपनी आत्मा को भी न्योछावर |
| कर दिया। |
| हर-गौरी का विवाह |
| आनंदपूर्वक संपन्न हुआ। |
| हिमाचल ने कन्यादान |
| दिया। विष्णु भगवान |
| तथा अन्यान्य देव और देव- |
| रमणियों ने नाना प्रकार |
| के उपहार भेंट किए। |
| ब्रह्माजी ने वेदोक्त |
| रीति से विवाह करवाया। |
| सब लोग अमित उछाह से भरे |
| अपने-अपने स्थानों को लौट |
| गए। |
Wednesday, 21 May 2014
शिव विवाह
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